पूंजीवादी लोकतंत्र में दलित-शोषित और श्रमजीवी जनता की आज़ादी के मायने...
August 16, 2020
पूंजीवादी लोकतंत्र में
दलित-शोषित और श्रमजीवी
जनता की आज़ादी के मायने...
आर्थिक जनतंत्र को लागू किए बिना 'एक व्यक्ति एक मूल्य' का सिद्धांत दलित-शोषित श्रमिकवर्ग को लोकतंत्र के नाम पर शासकवर्ग द्वारा दिया गया धोखा है । बिना आर्थिक समानता लाए टाटा, बिड़ला, अडाणी, अंबानी और एक ग़रीब दलित-मज़दूर कैसे समान हो सकते हैं ? और जो समान नहीं है उनके बीच और प्रेम मैत्री की भावना का होना लगभग असंभव है । उनके बीच तो वह दया और सहानुभूति का ही संबंध हो सकता है, प्रेम और मैत्री का नहीं । प्रेम और दया में वही फ़र्क़ है जो अंबानी और एक धनहीन व्यक्ति में हो सकता है । प्रेम और मैत्री के संबंध तो समान तल पर ही घटित हो सकते हैं । इसीलिए बिना आर्थिक समानता के 'एक व्यक्ति एक मूल्य' का कोई अर्थ नहीं । यह भी एक बौद्धिक और राजनीतिक जुमला ही है, इससे ज़्यादा नहीं । इसीलिए संविधान में स्वतंत्रता, न्याय, समानता, समाजवादी राज्य और बंधुता का जो ढोल पीटा गया है उनका आज़ादी के 72 वर्षों भी कहीं अतापता नहीं हैं । आम आदमी की तो छोड़ो प्रशांत भूषण जैसे नामी गिरामी वकीलों तक को भी न्याय मिलना मुश्किल हो रहा है । सत्य बोलने के कारण उनके जेल जाने की नौबत आन पड़ी है । ऐसे में कैसी स्वतंत्रता और कौन सा न्याय ? अंधेर नगरी चौपट राजा ।
संविधान में आर्थिक जनतंत्र यानी आर्थिक समानता का कहीं कोई ज़िक्र नहीं किया गया है । सबको अनिवार्य और निःशुल्क व समान शिक्षा और फिर योग्यतानुसार काम के अधिकार को भी मूल अधिकारों में शामिल नहीं किया गया है । इस संविधान में श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को भी क़ानूनन मूक मान्यता दी गई है जबकि यही वह विष की गांठें हैं जिनसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, जातीय और अन्य तमाम तरह के उत्पीड़न और असमानताओं की ज़मीन तैयार होती है । इसीलिए श्रम का शोषण और निजी संपात्ति का अधिकार, यही वह विष की गांठें हैं जिनसे सारे व्यक्तिगत और सामाजिक पाप, आपसी संघर्ष, अपराध, आतंक और हिंसाएं निकलती हैं । ये 'एक व्यक्ति एक मूल्य' पर आधारित पूंजीवादी लोकतंत्र के स्वाभाविक परिणाम हैं । इसीलिए आज देश में विभिन्न वर्गों, धर्मों, समुदायों, वर्णों और जातियों के बीच इतना संघर्ष, अशांति, कलह-क्लेश और असंतोष मौजूद है । इसी 'एक व्यक्ति एक मूल्य' के सिद्धांत का सहारा लेकर आज घोर ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी शोषक शक्तियां मात्र 37 प्रतिशत मत लेकर सत्ता पर क़ाबिज़ हो बैठी हैं और यह शक्तियां दलितों पर ही नहीं बल्कि ग़रीब हिंदुओं और ग़ैर-दलितों का भी दमन करने पर उतारू हैं । देश तेज़ी के साथ फासिज़्म के ख़ूनी शिकंजों में फंसता नज़र आ रहा है । इसीलिए श्रम के शोषण और निजी संपत्ति का उन्मूलन किए बग़ैर 'एक व्यक्ति एक मूल्य' जैसे सिद्धांत की क़ीमत एक महत्वहीन फ़िकरे से ज़्यादा नहीं हो सकती । 'एक व्यक्ति एक मूल्य' का सिद्धांत तो अस्तित्व में है ही उसी पर तो यह तथाकथित लोकतंत्र काम कर रहा है । उसे नकारने का सवाल कहां है ? सवाल तो उसके साथ आर्थिक जनतंत्र को जोड़कर उसे लागू करने का है । देश की दलित-शोषित और श्रमजीवी जनता की आज़ादी के और क्या मायने हो सकते हैं ?